Friday 25 April 2014

मुमकिन है मैं शायद तेरा ना हो पाउँगा
मुमकिन है तुम संग गीत ना गा पाउँगा 
बहुत मुश्किल लगती है मोहब्बत की राह
लगता है मुझे , मैं तुझमें हीं समा जाऊंगा 

तुझको कोई सहारा शायद ना दे पाउँगा
दुनिया की हर रश्मों को ना निभा पाउँगा 
बहुत मुश्किल लगता है अपना मिलना 
लगता है मुझे , मैं तुझमें हीं मिल जाऊंगा 

....................रविश चंद्र "भारद्वाज"
अपनी रसोई में , अपने चूल्हे पर बनी , 
चाय का वो पहला घूँट 
हर एक घूंट पर आनंद आया

कितने दिंनो बाद ,कितने प्रयत्नों बाद 
नसीब में खुद के हाथ में चाय का प्याला 
हर उस अधूरी उबली कडवी , 
चासनी सी बनी उन अनुभवों को धो डाला 
मन ने फिर अतीत के पन्नो को खोला 
कुछ अच्छी , ख़राब, पुरानी यादो को टटोला 

बचपन की वो माँ की चाय में एक घूँट पीने की ज़िद
लड़कपन में बहिन से लड़ कर चाय बनवानी की ज़िद
जवानी में खुद अपने हाथों से चाय बनाने की ज़िद
ऑफिस में वो डुबो डुबो कर बनने वाली चाय
चपरासी के हाथो खौली हुई चाय बनवाने की ज़िद

सब का अपना रंग , सबका अपना स्वाद
कुछ कभी मीठी लगे कुछ कभी ख़ास

अतीत की राहें छोड़ा वर्तमान में आ गया
आज ऐसा क्या है इस चाय मे ,
क्योँ इतनी मन ने अच्छी लगाई
खुद के हाथ से बनी चाय
तो कितनी बार पी और पिलाई

यह अंतर उस पहचान का है
आज जो मैंने पायी है
उस विश्वास की खुशबू मेरी इस चाय में आई है

तुम मेरे घर जरूर आना
मेरी रसोई की बनी मेरी हाथ की चाय पीना
और मेरी स्वाद को अपना स्वाद बना फिर बताना
कैसी है मेरे चूल्हे पर बनी

सवाल मेरे जवाब उनके ........