Wednesday 16 July 2014

वो कभी कभी मुसकुराते हैँ
वो कभी कभी खिसियाते हैँ
वो कभी कभी बतियाते हैँ
वो कभी कभी मुँह फुलाते हैँ
ऐसा नशा चढता है दिल पे
अब का बतायेँ अपना हाल
बस इतना समझ ल गुरु
पूरा आग लगा के जाते हैँ
उनके कभी कभी के चक्कर मेँ
हम सब कुछ भूला जाते हैँ

हम इतने बुरे बन जाते हैं
का बताएं बहुत दुखी हो जाते हैं
आँख से लोर टपकता जाता है
और वो मुह टेढ़ा कर बैठ जाते हैं
बहुत हम उनको मानते हैं
पर वो नहीं मान पाते हैं
नखरा इतना दिखाते हैं
हम समझ नहीं पाते हैं
कब हसें कब रोये हम
ये समझ नहीं पाते हैं

जब से मिलें हैं हमको
हमको अपना कुछ पता नहीं
वो हमको पागल बताते हैं
जब कहते हैं "आई लव यू"
"मालूम है" कह के टाल जाते हैं
हम का कहें दिल का हाल आपसे
मन हीं मन मुस्कुरा जाते हैं
पर ये अदा उनकी जाती नहीं

वो कभी कभी मुसकुराते हैँ
वो कभी कभी खिसियाते हैँ
वो कभी कभी बतियाते हैँ
वो कभी कभी मुँह फुलाते हैँ

Tuesday 15 July 2014

तुमसे कही थी एक बात कल


दिल की बतायी थी बात कल


तुम शरमायी थी सुन बात कल


मेरी कविता मेँ आयी बात कल


लिख डाली थी कसम बात कल


बातोँ बातोँ मेँ हुयी थी बात कल


फैसले की वो घड़ी रात कल


चुपचाप तुम्हारी वो बात कल


कानोँ मेँ मेरे पड़ी थी बात कल


साथ जीने हँसने की बात कल


आज तुम हमारे हो वो बात कल

Monday 14 July 2014


बरसात की वो पहली बौछार 
तपिश से झूलसा मेरा मन 
आज जाने फिर क्यूँ मचल गया 
पिया की याद आयी और मन खिल गया 
शायद इस मन को तेरी हीँ तालाश थी 
बस किसी बहाने हँस गया 
तुम कहाँ चले गये थे बादलोँ मेँ छिप 
आज अकेला मन तेरी प्यार की ठंडक मेँ ठिठूर गया 
बूँदोँ का तो बस बहाना था 
तेरे नम होठोँ को छू रविश 
तुममेँ पिघल गया
तंग गलियाँ हैँ आज भी जहाँ मिलते थे चूरन बतासे
महकते बागिचे आज भी जहाँ खिलते थे बसंती फूल
माँ की पुकार आज भी जहाँ पकते थे आलू पराठे
मिट्टी की खूशबु आज भी जहाँ उड़ाते थे पैरोँ से धूल
तो चलो एक बार लौट चलेँ अपने गलियोँ मेँ खेलने
बागिचे मेँ जरा सोने
पराठे को जरा चखने
धूल को फिर से उड़ाने
जिंदगी के मायने समझने !
आज एक बार फिर गाँव की याद आ गयी 
घूँघट मेँ पिया की गोरी शरमा गयी
गली मेँ रोटी की वो खूशबु आ गयी
कुँऐ की ठंडी नीर प्यास बुझा गयी
चाचा की पतंग हवा मेँ डोल गयी
दादी नानी की कहानी याद आ गयी
दादाजी के डंडे से गौमाता घबरा गयी
सबको इंतजार था बरसोँ से प्यार का
बहूरानी बिटिया बन घर पे आ गयी
दर्द हीँ है देने को तुझे जान मेरे पास
पाल कर रखना इसे जरा अपने पास

दुनिया के नजर से बचाना इसे खास
जान से प्यारा है मेरा ये दर्द मेरे यार

शिकवा नहीँ मुझे जरा भी उनसे
जिन्होने दी ये मलकियत मुझ गरीब को

शायद उन्होने समझा था मुझे जरा खास
तुमने जो सीने से लगाया है इसे जान

तो इसकी आज मुस्कान हीँ है कुछ खास

दर्द हीँ है देने को तुझे जान मेरे पास
पाल कर रखना इसे जरा अपने पास
रोना मना था आखों को बस दिल से मुस्कुरा के चल दिए 

दिल को कुछ पाने की जुस्तजू थी दिल को हीं लूटा के चल दिए
सारा गुस्सा यूँ निकला सनम का कि आजतक गुमसुम हीँ बैठेँ हैँ
आज गुजर गये मुस्कुरा कर गली से तब समझ आया कहाँ बैठे हैँ
एक प्यार भरी निगाह जो आज पड़ी उनकी मुझ गरीब पे तो लगा दिल को 
हम उनकी हीँ गली मेँ अपना ताजमहल बना कर चैन से बैठे हैँ
हर शाम गुजर जाती अधूरी मेरी
हर सुबह में अधूरापन रहता है
क्या करूं दिन और रात की बात 
हर सांस में अधूरापन रहता है

हर मंजिल है आज अधूरी मेरी
हर राह में अधूरापन रहता है
कितने भी पास चले आऊँ तुम्हारे
मिलने में अधूरापन रहता है 

हर कविता है आज अधूरी मेरी
हर बात में अधूरापन रहता है
कितनी भी मेरी अच्छी किस्मत
हर ख़ुशी में अधूरापन रहता है

हर शाम गुजर जाती अधूरी मेरी
हर सुबह में अधूरापन रहता है

-------- रविश चन्द्र "भारद्वाज"