Saturday 19 April 2014

धीरे धीरे उसने मेरे जीने के अंदाज़ बदल दिए
दोस्त थे चंद अपने वो भी कहीं जाने खो गए 

जाने कितने बदलाव आये और बस चले गए
हम जहाँ से चले थे वहीँ के होकर बस रह गए

अजीब सी चाहत थी दुनिया को जीत जाने की 
शायद हर जीत को वो मेरी हार बना चल दिए

अब चाहत ना रही है मुझे कुछ और पाने की 
बेवजह सीने में दिल बस दहकता रहता है

बस प्यास लगती है बड़ी जोरों की आत्मा को
पूछता हूँ जब भी अपनी बर्बादी की वजह

कोई साया सा अपना दिख जाता है आँखों को
बस कह देता हूँ यूँ हीं की तुझसे बड़ा प्यार है

और प्यास बुझ जाती है मेरे आत्मा की यूँ
तुझसे मिलना है मुझे अकेले में किसी दिन

अपने खुदा को गवाह बना के आखिरी बार
शायद तुम हीं तो वो नहीं जो मेरा अपना है

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