Thursday 14 November 2013

यादोँ की गठरी

कल बहुत डर सा लगा
बैठे थे अकेले मेँ चुप से
हिम्मत कर आखिर खोली
यादोँ की गठरी चुप से

टूटा हुआ काँच चुभ गया
दिल तक को कुरेद गया
वो आधी पेँसिल का टुकड़ा
मन मेँ छेद करता गया

टिफिन निकला मुस्कुराता
वाटर बोतल छलक गया
पूरी कमीज गिला गिला कर
आत्मा की प्यास बुझा गया

स्कूल बैग था बड़ा उदास
आ रही अब भी उसमेँ से
पराठे की खुशबू वो खास
माँ की याद दिला गया

आलू भुजिये के तेल से सने
कापियोँ के फटे पन्ने देख के
डर सा लगा सोच कर के
होमवर्क अभी थोड़ा रह गया